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वोटिंग के घटने-बढ़ने से सरकार नहीं बनती

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अजीब तरह की खामोशी के साथ आखिरकार ये चुनाव पूरा हो गया। नतीजे 3 दिसंबर को आएंगे, तब पता चलेगा कि इस खामोशी की आवाज़ क्या थी। ये चुनाव सच में बहुत मायनों में अलग था। न शोर-शराबा, न बैनर, न पोस्टर, साफ-साफ सड़कें और दीवारें..आमतौर पर ऐसा पहले कभी देखा नहीं गया। बावजूद इसके लोगों ने लोकतंत्र के हवन में अपने मतदान की आहूतियां दीं।

पिछली बार 76.45 प्रतिशत लोगों ने नई सरकार का फैसला किया था और इस बार 70.12 फीसदी लोगों ने वोट दिए हैं। ये दूसरे चरण की वोटिंग है। पहले चरण की 20 सीटों पर 78 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। चुनाव आयोग एक दिन बाद फाइनल आंकड़े जारी करेगा।

वोटिंग के घटने-बढ़ने का सरकार बनने पर असर नहीं

आमतौर पर कहा जाता है कि वोटिंग बढ़ने का मतलब सरकार के खिलाफ वोटिंग होता है, लेकिन छत्तीसगढ़ के पिछले चुनाव के आंकड़े अलग बात कहते हैं। 2003 में भाजपा ने 50 सीटों पर जीत हासिल की थी, वहीं, कांग्रेस को 37 सीटें मिली थीं। इस चुनाव में मतदान का कुल प्रतिशत 71.30 रहा था। जब अगली बार 2008 में सरकार बनी, तो वोटिंग कम हुई थी। कुल 70.51% वोटिंग हुई थी।

यह 2003 की तुलना में करीब एक फीसदी कम था। तब भाजपा को 50 सीटें मिली और कांग्रेस को 38 सीटें। इस चुनाव में भाजपा को 40.33 फीसदी और कांग्रेस को 38.63 फीसदी वोट मिले थे। 2013 में फिर एक बार वोटिंग का परसेंट बहुत बढ़ा, लेकिन सरकार भाजपा की ही आई। इस समय 77.12 फीसदी वोटिंग हुई और भाजपा को 49 सीटें मिलीं।

कांग्रेस को एक बार फिर 38 सीटों पर संतोष करना पड़ा। इसके उलट 2018 में 76.35 फीसदी वोटिंग हुई और कांग्रेस ने भाजपा को बुरी तरह हराया। यानी वोटिंग प्रतिशत के घटने बढ़ने का सरकार बनने बिगड़ने पर असर नहीं दिखता। पिछली बार ये जरूर हुआ कि जीत का अंतर वोटिंग शेयर में बहुत ज्यादा हो गया। पहले वोट शेयर में 1 प्रतिशत से कम का अंतर था, जबकि 2018 में 10 प्रतिशत हो गया।

कई सीटों के नतीजे चौंका सकते हैं

वोटिंग हो चुकी है। ईवीएम में फैसला बंद है, लेकिन कई सीटों के नतीजे चौंका सकते हैं। प्रदेश की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाली सीट साजा में समाज के वोट ने टक्कर पैदा कर दी। यहां से ईश्वर साहू और मंत्री रविंद्र चौबे के बीच लड़ाई है। वोटिंग खत्म होते-होते यह बात ज्यादा कही जाने लगी कि ईश्वर साहू ने जिस तरह से अपनी संवेदनाओं को लोगों तक पहुंचाया, वो लोगों के दिलों में घर कर गया।

इधर, रायपुर उत्तर में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उतरे अजीत कुकरेजा ने ऐसा वातावरण बना दिया है कि न तो कांग्रेस अपनी जीत के प्रति आश्वस्त है और न ही भाजपा। अलबत्ता यहां ये जरूर कहा जा रहा है कि रायपुर उत्तर में कहीं ‘ट्यूब लाइट’ न जल जाए। ट्यूब लाइट अजीत कुकरेजा का चुनाव चिन्ह है।

कोटा और अकलतरा में त्रिकोणीय संघर्ष का फायदा किसे मिलेगा, ये कहना मुश्किल है। पामगढ़ और जैजैपुर से बसपा के विधायक रहे हैं। इस क्षेत्र से यह ताकत रही है।

बड़े चेहरे के सामने बड़ा वोट पर्सेंट

धमतरी जिले की कुरूद सीट में 82.60 प्रतिशत वोटिंग हुई है। यहां से अजय चंद्राकर विधायक हैं। पिछली बार जब पूरे राज्य से भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया था, अजय भाजपा की टिकट से यहां से चुनाव जीतने में सफल रहे। उनके सामने पिछली बार नीलम चंद्राकर बागी होकर चुनाव लड़े और दूसरे स्थान पर रहे।

इस बार नीलम की पत्नी तारिणी चंद्राकर को कांग्रेस ने टिकट दी। दोनों के बीच की टक्कर चर्चा में है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की पाटन विधानसभा सीट में 75.54 फीसदी वोटिंग हुई है। यहां भाजपा से सांसद विजय बघेल के अलावा जोगी कांग्रेस के अमित जोगी भी मैदान में थे।

उधर, अंबिकापुर में टीएस सिंहदेव कांग्रेस का चेहरा हैं। यहां 65.05 प्रतिशत वोट पड़े हैं। प्रदेश की नजर साजा पर भी है, जहां 72.62 फीसदी वोटिंग हुई है। उमेश पटेल की सीट खरसिया में 81.43 फीसदी वोटिंग हुई है।

शहरी सीटों पर कम वोटिंग, ग्रामीण में ज्यादा

राजधानी के शहर की चारों सीटों पर 55 फीसदी से कम मतदान हुआ है। रायपुर उत्तर में 54.50 फीसदी, 52.11 फीसदी, रायपुर पश्चिम में 54.68 फीसदी और रायपुर ग्रामीण में 53.80 फीसदी वोटिंग हुई है। जबकि पिछली बार यहां सभी सीटों पर 60 फीसदी से ज्यादा वोटिंग हुई थी।

रायपुर ग्रामीण में 61.16, रायपुर दक्षिण में 60.50 फीसदी, रायपुर उत्तर में 60.35 फीसदी और रायपुर पश्चिम में 61.73 फीसदी वोटिंग हुई थी। जबकि ग्रामीण सीटों की बात करें, तो 75 प्रतिशत से ज्यादा वोटिंग वाली 10 सीटें हैं। इनमें पाटन, कुरूद, धमतरी, संजारी बालोद, डोंडीलोहारा, गुंडरदेही, सिहावा, लैलूंगा, सारंगढ़, पाली तानाखार जैसी सीटें हैं।

कर्जमाफ़ी और महिलाओं को 12000 रुपए में सिमटा चुनाव

यूं तो चुनाव तो मुद्दों, घोषणाओं और बयानबाजियों का ही होता है, लेकिन इस बार का यह चुनाव आखिर तक आते-आते कांग्रेस के किसानों की कर्जमाफ़ी के वादे और भाजपा के महिलाओं को 12 हजार रुपए देने के बीच टक्कर में सिमटता गया। कांग्रेस ने घोषणा पत्र जारी करने से पहले एक-एक करके 17 घोषणाएं अलग-अलग मंच से कर दी थीं।

वोटर्स को इसके लिखित प्रमाण की जरूरत थी और वो भाजपा के घोषणा पत्र जारी होने के एक दिन बाद आया। जाहिर तौर पर वोटर खामोश रहा और यह देखता रहा कि भाजपा इसके जवाब में क्या ला रही है। भाजपा ने कांग्रेस की तरह गरीबों को मकान, आदिवासियों को सुविधाएं, सिलेंडर में बचत, युवाओं को रोजगार सब तरह के वादे घोषणा पत्र में पहले किए, लेकिन भाजपा का एक दांव ऐसा चला कि पहले चरण की वोटिंग के बाद हवा बदलती दिखाई देने लगी।

भाजपा ने महिलाओं को हर महीने 1 हजार रुपए सीधे खाते में डालने का वादा किया और घर घर जाकर फार्म भरवाने में लगी, तो कांग्रेस के माथे पर चिंता की लकीरें उठ गईं। कांग्रेस की कर्जमाफ़ी का तोड़ भाजपा का महिलाओं को 12000 रुपए था।

आखिरकार वोटिंग से ठीक चार-पांच दिन पहले कांग्रेस को भी एक और घोषणा करनी पड़ी कि अगर कांग्रेस सरकार में आई तो वह 15000 रुपए हर साल महिलाओं को देगी। सरकार की ये हड़बड़ी ने साबित किया कि इस घोषणा से कांग्रेस चिंता में थी। किसानों के लिए दोनों ही पार्टियों ने दिल खोलकर वादे किए हैं।

तीन महीने में भाजपा ने टक्कर का माहौल बना लिया

चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के तीन महीने पहले तक हर आदमी यह कहता नजर आया कि भाजपा कहीं लड़ाई में नहीं दिख रही। कांग्रेस एक तरफा जीत रही है, लेकिन चुनाव आते-आते यह कहा जाने लगा कि लड़ाई टक्कर की है। दरअसल, भाजपा के चाणक्य अमित शाह और भाजपा के प्रदेश प्रभारी ओम माथुर ने जिस तरह चुनाव को मोड़ा, वो काबिले तारीफ है।

भाजपा ने जातिगत और सामाजिक समीकरणों के तहत टिकटों की घोषणा की। 15 सीटों पर 17 अगस्त को ही टिकट जारी किए गए। ऐसा पहली बार हुआ कि घोषणा पत्र के इतने दिन पहले भाजपा ने टिकट जारी किए, जबकि कांग्रेस में इसके विपरीत पहली लिस्ट काफी 15 अक्टूबर को जारी की। जिसमें 30 नाम थे और ये वो नाम थे, जो बेहद स्वाभाविक थे। इसमें मुख्यमंत्री, मंत्री और बड़े नेताओं के नाम शामिल थे।

चुनाव आते-आते कांग्रेस इतनी असमंजस में आती गई कि किसकी टिकट काटें, किसे टिकट दें। लिहाजा कई जगह से बगावत की खबरें आईं। कांग्रेस ने यूं तो 22 विधायकों के टिकट काटे, लेकिन इनमें 2 ऐसे थे, जिनके परिवार को ही टिकट दे दिया।

दंतेवाड़ा से मां देवती कर्मा की जगह छबिन्द्र कर्मा और रायपुर ग्रामीण से सत्यनारायण शर्मा की जगह पंकज शर्मा को टिकट मिला गया। इस नजरिए से 20 टिकट काटे गए। यानी 20 सीटों पर स्थानीय विधायकों की नाराजगी स्वाभाविक थी। कहीं खामोशी से नाराजगी जाहिर हुई तो कहीं बगावत के रूप में, कहीं भितरघात के रूप में चीजें सामने आईं।

वोटिंग नक्सलवाद की छाया से मुक्त

पहले चरण के मतदान के बाद अब लोग इस बात की गणना में लग गए हैं कि पहले चरण की 20 सीटों में किसे-कितनी सीटें मिलेंगी। सबकी अलग अलग राय है। इंटेलिजेंस इनपुट ने भी अपना आकलन किया है, लेकिन ये तय है कि स्थिति पहले जैसी नहीं है।

पहले चरण में 2 स्पष्ट संकेत मिले। पहला ये कि चुनावों में नक्सल वारदात अब बीते जमाने की बात होती जा रही है। पूरे मतदान की प्रक्रिया में नारायणपुर और कांकेर के कुछ-एक इलाकों से ही छोटी-मोटी वारदात की खबरें आईं, अन्यथा पहला चरण शांतिपूर्ण ढंग से हो गया।

दूसरा ये कि हम जिन्हें नक्सल प्रभावित क्षेत्र या आदिवासी क्षेत्र कहते हैं, वे वोटिंग के मामले में ज्यादा जागरूक हैं। कोंटा (63.14%) और बीजापुर(48.37%) को छोड़ दें, तो ज्यादातर इलाकों में 75 फीसदी से ज्यादा वोटिंग हुई है। 20 में से 11 विधानसभा सीट ऐसी है, जहां 80 से ज्यादा प्रतिशत वोटिंग हुई है

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