Site icon NBS LIVE TV

पंथ- इंसानी खून से काली मां को तिलक

शिमला शहर से लगभग 12 किलोमीटर पीछे मनाली हाईवे के लिए एक सड़क ऊपर की ओर जा रही है। इसी सड़क पर 25 किलोमीटर चलने के बाद धामी नाम का गांव आ जाएगा। जिस दिन मैं यहां पहुंची हूं उस दिन यहां मेले जैसा माहौल है। बच्चे, बूढ़े, जवान सब धीरे-धीरे जमा हो रहे हैं।

दरअसल आज यहां ‘पत्थर मेला’ होने वाला है। यह मेला हर साल दिवाली के दूसरे दिन लगता है। इसमें दो समुदाय के लोग एक दूसरे को पत्थर मारते हैं। पहली बार जब मुझे इसके बारे में पता चला तो सुनकर अजीब लगा। सोचा क्यों न खुद धामी पहुुंच जाऊं और आंखों देखी आपके साथ भी शेयर करूं। इस तरह चंडीगढ़ से टैक्सी लेकर मैं सुबह-सुबह ही धामी गांव के सती चौराहे पर पहुंच गई हूं।

पत्थर मेला में भीड़ उमड़ती है इसलिए काली मंदिर के पास दुकानदार गोलगप्पे, चने भटूरे की दुकान सजा रहे हैं। झूले वाले भी आ गए हैं। मेले की तैयारी देखते हुए मैंने राजमहल का रुख किया। यहां मुझे राजा जगदीप सिंह से मिलना था। 2008 से धामी रियासत की जिम्मेदारी इनके पास है।

यह धामी राजवंश का पांच सौ साल से भी अधिक पुराना महल है। जब शिमला भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी, तब अंग्रेज अफसर इस रियासत में शिकार खेलने आते थे।

राजा जगदीप सिंह सन ग्लासेस पहने बाहर आए। हमने कुछ मूल बातचीत की। मैंने पूछा कि आप सेंट स्टीफन जैसे शिक्षण संस्थान से पढ़े हैं, देश-विदेश में घूमते हैं, आखिर क्या वजह है कि राज परिवार आज भी इस मेले का आयोजन करवाता है?

राजा जगदीप सिंह बताते हैं, ‘न केवल मैं इस मेले का आयोजन कर रहा हूं बल्कि मेरी आने वाली पीढ़ी भी इसकी तैयारी करेगी, क्योंकि यह इस इलाके की सांस्कृतिक और धार्मिक रिवायत है।’

इस परंपरा के पीछे की वजह क्या है?

राजा जगदीप सिंह कहते हैं, ‘राज परिवार का मानना है कि अगर मेले की इस रस्म को पूरा न किया गया तो इलाके में आपदा आ जाएगी और राज परिवार का भविष्य भी खतरे में होगा।

इस मेले की खासियत यह है कि इसमें दो समुदाय आमने-सामने एक दूसरे को पत्थर मारते हैं। ये लाेग तब तक पत्थर मारते रहते हैं, जब तक किसी का खून न निकल जाए। उसके बाद जब किसी एक का भी खून निकल आता है तो पत्थर मारना बंद कर दिया जाता है। फिर उस खून से मां भद्रकाली को तिलक किया जाता है। यह तिलक राजा करता है।’

Exit mobile version